दिव्यांग जानकर पिता ने बचपन में छोड़ा, फिर मां ने पाला, अब इस फुटबॉलर ने…

2024-07-21 10:30:55

जबलपुर. मध्यप्रदेश में जबलपुर के रहने वाले दिव्यांग फुटबॉलर की कहानी जितना भावुक करती है, उतना ही प्रेरणा भी देती है. कहानी 19 साल के दिव्यांग फुटबॉलर तरुण कुमार की है, जो 2 साल की उम्र तक चल भी नहीं पता था. बोलने में भी दिक्कत थी. फिलहाल, तरुण चलने तो लगा, लेकिन बोल नहीं पाया. तरुण के पिता ने बचपन में ही बेटे और पत्नी का साथ छोड़ दिया. इसके बाद मां-बेटे ने हिम्मत नहीं हारी और ननिहाल आ गए.

इसके बाद तरुण ने भारत का नाम रोशन किया. स्वीडन में चल रहे स्पेशल ओलंपिक में डेनमार्क को हराकर गोल्ड मेडल के साथ गोथिया कप पर कब्जा जमाया. बता दें कि कुछ दिन पहले ही स्वीडन में चल रहे स्पेशल ओलंपिक के लिए भारतीय फुटबॉल टीम रवाना हुई थी. इसमें मध्यप्रदेश के इकलौते दिव्यांग खिलाड़ी तरुण कुमार टीम का हिस्सा थे. अब उनकी बदौलत भारतीय टीम फाइनल तक पहुंची. फाइनल के आखिरी मोमेंट में भी तरुण का जलवा दिखा. मैच में जहां भारत और डेनमार्क का स्कोर 3-3 पर टाई, वहीं तरुण ने पेनल्टी गोल कर भारत का परचम लहराया.

न सुन पता, न बोल पाता, न चल पाता था तरुण
तरुण की मां संगीता ठाकुर ने बताया कि जब तरुण 2 साल का था. तब वह न चल पाता था, न ही सुन सकता था और न ही बोल पाता था. उसकी मानसिक स्थिति कमजोर थी. इस मुश्किल की घड़ी में पिता ने भी साथ छोड़ दिया था, जिसके बाद तरुण अपने मां के साथ नाना-नानी के घर आ गए थे. वहां उनका पालन पोषण हुआ. घर शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर था.

हॉकी के बाद फुटबॉल में दिखाई रुचि
बावजूद इसके 4 साल की उम्र में तरुण को मां ने जस्टिस तंखा मेमोरियल रोटरी इंस्टीट्यूट फॉर स्पेशल चिल्ड्रन स्कूल में दाखिला कराया. यहां दसवीं में तरुण मेधावी छात्र बना. हालांकि पहले दिव्यांग प्रतियोगिता में तरुण हॉकी खेलता था. लेकिन, बाद में हॉकी से ज्यादा फुटबॉल में रुचि हो गई. इसके बाद राष्ट्रीय कोच प्रभात राही ने तरुण को लगातार 4 वर्ष तक फुटबॉल की ट्रेनिंग दी. इस ट्रेनिंग के लिए तरुण 20 किलोमीटर दूर शिवाजी ग्राउंड आया करते थे.

मां-बेटे एक साथ गुजार रहे जीवन
तरुण की मां संगीता ठाकुर अकेले ही अपने बेटे को पाल रही हैं. अब तरुण 19 साल का हो गया है, लेकिन मां को अपने बेटे के दिव्यांग होने से कोई परेशानी नहीं. मां का कहना है, हमें हौसला कभी नहीं हारना चाहिए. तरुण के नाना-नानी, मामा-मामी ने इस उपलब्धि में पूरा सपोर्ट किया. हालांकि, इसके पीछे तरुण के स्कूल तंखा मेमोरियल का भी सहयोग रहा. स्कूल के समर्पण भाव और मेहनत की बदौलत ओलंपिक तक पहुंचने में भी तरुण को किसी तरह की आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ा.

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